शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

मेरी श्रद्धांजलि

मेरी श्रद्धांजलि

शब्दों की गूंज से आकाश हिल गया
क्या हमने  सच्च में अटल खो दिया।
वो, जिसकी वाणी से हिल जाते थे पर्वत,
आज बिना कुछ कहे हमसे विदा ले गया।

मैं कभी तुमसे मिला नहीं
तो यह शून्यता मेरे अंदर क्यों।
कहीं तुम मेरे विचार तो नहीं थे
मेरी सोच का संचार तो नहीं थे।

तुम्हारी बेबाकी, वाक्पटुता और इंसानियत से प्यार,
कभी राजधर्म सीखते तो कभी स्नेह बिखेरते विचार
वो सच्ची तीखी बातें, वो तलखी का अंदाज़
नेहरू की फ़ोटो हटने पर कैसे हुए थे नाराज़

तुम गरीब की आवाज़ बने, गांवों के मसीहा
तुम्हारे शब्द हर लेते थे देशवासियों की पीड़ा।
धर्म, जाति, सम्प्रदाय से कभी न तो कोई द्वेष
हर किसी को अपनाया, बनकर सबका वेश।।

अपने विपक्षियों को तुमने क्या अपना बनाया है
तभी तो आज दिल्ली में सैलाब उमड़ आया है
इंसा क्या बस एक जहां से दूसरे जहां का परिंदा है।
हम जैसे कई लोगों में अटल हमेशा जिंदा है।

भावबीनी श्रद्धांजलि।।
सरताज मोहम्मद शकील
बैंक ऑफ इंडिया।।









गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

क्‍या हिंदी के अच्‍छे दिन आ गए हैं

देश के प्रधानमंत्री के रूप जब श्री नरेन्‍द्र मोदी जी ने हिंदी में शपथ ली तभी से यह लग रहा था कि हिंदी के दिन अच्‍छे होने वाले हैं। हालांकि,  आरंभ में गृह मंत्रालय द्वारा हिंदी के प्रयोग को बढ़ाने के सामान्‍य सरकारी आदेशों को लेकर मीडिया, हिंदीतर भाषी राज्‍यों और उच्‍च वर्ग के लोगों में कुछ आशंकाएं पनपी या बेवजह तूल भी दिया गया परंतु सरकार ने इन आशंकाओं को समाप्‍त कर दिया। मेरा यह मानना है कि हिंदी को देश की भाषा बनाने के लिए सरकारी आदेशों से कहीं ज्‍यादा आवश्‍यक व्‍यवहार में उसका प्रयोग बढ़ाने की हैं। देश के प्रधानमंत्री यह जानते हैं और समझते हैं कि देश के लोगों के साथ उनकी भाषा में ही संवाद स्‍थापित किया जा सकता है। चुनाव प्रचार के दौरान उनका क्षेत्र विशेष में जाकर उनकी भाषा में भाषण की शुरूआत करना इस बात को समझने के लिए काफी था कि वह देश की सही नब्‍ज़ को पकड़ रहे हैं। गुजरात में जहां वो अपनी बात गुजराती में करते रहे वहीं देश के लोगों के साथ वह हिंदी में ही बात करते थे। पिछली सरकारों इस बात का महत्‍व कभी नहीं समझा और बेवजह अंग्रेजी का बोझ लोगों पर थोपते रहे। हिंदी भाषा के प्रति संविधान की मूल भावना को समझने की आवश्‍यकता है जिसकी पिछली सरकारों ने अनदेखी की। हिंदी भाषा के विकास को सरकारी आदेशों तक सीमित कर दिया गया। शायद देश में हिंदी भाषा के प्रति बढ़ते हीनता और उदासीनता के माहौल पर ध्‍यान दिया जाता तो आज अन्‍य भाषाओं और हिंदी भाषा के समन्‍वय पर सम्‍मेलन किए जा रहे होते। कई दश्‍कों तक संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का हिंदी में भाषण देना एक प्रेरणादायी समाचार बना रहा। आज सुखद स्‍थिति यह है कि उसी मंच से  माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्‍द्र मोदी स्‍वभाव से हिंदी में बात कर रहे हैं और साथ ही विदेश मंत्री और अन्‍य मंत्री भी। इतना ही नहीं उन्‍होंने अपने विदेशी दौरों में हिंदी में बात करके भाषा को अंतरराष्‍ट्रीय स्‍तर पर भी मजबूत किया है। हाल ही में अमेरिका यात्रा के दौरान मोदी जी ने गूगल को देश की 24 भाषाओं में कार्य करने की सुविधा तैयार करने की बात कहकर साबित किया कि वह देश के अन्‍य भाषाओं के विकास को लेकर भी गंभीर हैं। यह पूर्ण रूप से स्‍पष्‍ट हो रहा है कि हिंदी भाषा पूरे देश को जोड़ने का काम करने वाली भाषा थी, है और रहेगी। इसमें दोराय नहीं कि अभी भी कई राज्‍यों की प्रथम भाषा अंग्रेजी ही है विशेषकर नार्थ ईस्‍ट। लेकिन जब भाषाओं के संवर्द्धन की बात होती है तो उसमें अंग्रेजी को अलग करके नहीं देखना चाहिए। अंग्रेजी आज देश की नई पीढ़ी की भाषा के रूप में महत्‍वपूर्ण स्‍थान रखती है लेकिन पिछली सरकारों में अंग्रेजियत को बुद्धिमता का द्योतक मान लिया गया था। आज स्‍थिति बिलकुल भिन्‍न है। श्री नरेन्‍द्र मोदी जी ने 15 महीनों में हिंदी को जिस प्रकार विश्‍वमंच पर प्रस्‍तुत किया है वो निश्‍चित रूप से सरहानीय है और वो इस तथ्‍य को भी मजबूत किया है कि अपनी बात को जितनी अच्‍छी तरह आप अपनी भाषा में रख सकते हैं उतना किसी और भाषा में नहीं रख सकते। यह भी उल्‍लेखनीय है कि मोदी जी को जहां आवश्‍यक लगता है वहां अंग्रेजी में बोलते हैं।
यह कहना तो उचित है कि इस सरकार के आने के बाद देश में हिंदी भाषा के प्रति अपनत्‍व ओर सम्‍मान की भावना बढ़ी है और भाषा को दिल से अपनाने का माहौल भी बना है। देश के मौजूदा भाषाविदों, साहित्‍यकारों, लेखकों, कवियों, प्रिंट और इलैक्‍ट्रॉनिक मीडिया के संपादकों, चिंतकों, भाषा के उत्‍थान से जुड़े विचारकों, फिल्‍मी जगत की हस्‍तियों को एक साथ मिलकर देश की विभिन्‍न भाषाओं को एक मंच पर लाने के लिए सेतु बनाने का प्रयास करना चाहिए। ऐसी अच्‍छी स्‍थिति में भाषाओं को एक दूसरे के नजदीक लाने का प्रयास किया जाना चाहिए। कुछ महीनों पहले मीडिया में हिंदी भाषा को लेकर बहुत सी परिचर्चाएं हुए और देश के प्रमुख चैनलों ने हिंदी भाषा को लेकर कई कार्यक्रम किए जो पहले कभी नहीं देखे गए। इसका अर्थ यह है कि देश में भाषा के विकास की चर्चा की संभावना है परंतु यह रचनात्मक सोच होनी चाहिए हानिकारक नहीं। यह चर्चाएं लोगों को जोड़ने का काम करें तोड़ने का नहीं। इससे देश त्रीव गति से उन्‍नति के रास्‍ते पर चलेगा। जय हिंद 

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

उदासीनता की परछाई भर है माननीय गृहमंत्री जी का हिंदी दिवस संदेश


तुम भूल भी जाओ तो क्‍या खुद आगे बढूंगी मैं
तुम्‍हारे उदासीन संदेशों की मोहताज नहीं हूं मैं

14 सितंबर को हिंदी दिवस है और फिर शुरू हो जाएगा झूठी बातों का सिलसिला और परंपरा के अनुसार राजभाषा से जुड़े अधिकारी जुट जाएंगे हिंदी दिवस के कार्यक्रमों के आयोजनों में। अपने-अपने प्रमुखों का संदेश जारी होगा और फिर हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए बड़े-बड़े कसीदे लिखे जाएंगें। वैसे तो कई जगह पुराने संदेशों को ही कॉपी पेस्‍ट करके कुछ नए शब्‍दों को उसमें डाल दिया जाएगा और नए रंग भरने का प्रयास किया जाएगा। शायद जितना झूठ इन संदेशों मे लिखा जाता है उतना कहीं और दिखने को नहीं मिलता। हिंदी हमारी राष्‍ट्रीय भाषा है, हिंदी हमारी अस्‍मिता की पहचान है, हिंदी राष्‍ट्र को सूत्र में पिरो सकती है, स्‍वतंत्रता सैनानियों और राष्‍ट्रीय नेताओं ने हिंदी को अपनी पहचान बताया है जैसे वाक्‍यों से संदेशों में जान डालने का प्रयास किया जाता है। लेकिन अब आम जनता खासकर सरकारी कर्मचारी इन बातों से प्रोत्‍साहित नहीं होते बल्‍कि इसे मजाक समझ लेते हैं। कुछ बड़े साहब के हस्‍ताक्षर हैं इसलिए कुछ बोलते नहीं। ऐसे वाक्‍ये भी कम नहीं कि इन संदेशों को कई बार विभाग प्रमुख अंग्रेजी में ही शुरू कर देते हैं तब हिंदी दिवस के मजाक बन कर रह जाता है। यह सारी बातें मैं इसलिए कह रहा हूं कि इस बार माननीय गृहमंत्री का हिंदी दिवस संदेश उदासीनता की पराकाष्‍ठा है। हिंदी को राजभाषा के रूप में विकसित करने के लिए क्‍या किया जाना है, ऐसा एक भी सुझाव देखने को नहीं मिलता है। वास्‍तव में इन सदेशों को परंपरा निभाने से ज्‍यादा देखा भी तो नहीं जाता। यदि वास्‍तव में देश के माननीय गृहमंत्री हिंदी को बढ़ावा देना चाहते तो हिंदी की प्रगति को रेखांकित कर सकते थे। हिंदी को हमेशा प्रेरणा और प्रोत्‍साहन से आगे ले जाना निश्‍चित रूप से संवैधानिक दायित्‍व है लेकिन उसी संविधान द्वारा बनाए गए नियमों की अनदेखी करना उदासीनता की निशानी है। संदेश यदि कार्यालय प्रधान के अपने दिल की बात हो तो लोग उसे आवश्‍यक रूप से गंभीरतापूर्वक देखते हैं लेकिन यदि संदेश राजभाषा विभाग ने दायित्‍व अनुपालन के दृष्‍टिकोण से लिखा हो तो इसका कोई औचित्‍य नहीं है। हम स्‍वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के संदेशों पर दृष्‍टि डालें तो उसके मुकाबले में यह कहीं नहीं ठहरता। हिंदी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्‍ठित न कर पाने की विफलता हर संदेश में दिखती है और अब इन संदेशों को कोई गंभीरतापूर्वक नहीं लेता। यह परंपरा भी अब समाप्‍त होनी चाहिए क्‍योंकि हिंदी को आगे बढ़ने के लिए इन सदेशों की आवश्‍यकता नहीं है वह स्‍वयं में सक्षम है और इसका प्रमाण देना मैं उचित नहीं समझता।  

शुक्रवार, 13 मई 2011

जब प्यार की हवा चले



जब प्यार की हवा चले,
तो दिल क्यों न बहके।

जब रात गहरी हो,
चांदनी क्यों न चहके।

जब सुनाई दे दिलकश राग,
तो कदम क्यों ने थिरके।

जब सांसों से मिले सासें,
तो मन कैसे न लड़खे।

जब अंधेरा हो जाए दूर,
तो सुबह क्यों न महके।

बुधवार, 4 मई 2011

शायरी

यहां आजकल खामोश होकर परिंदे भी रोते है
बे-गुनाह कत्ल इस धरती पर हर रोज क्यों होते हैं ।
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यह सोच लो अब आखिरी साया मोहब्बत है
इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा ।।
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चांद सा मिसरा अकेला है
मेरे कागज की छत पर तुम आके
मेरा शेर मुकक्मल कर दो ।।
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इस शहरे बे-वफा में जब भटकने लगो
मेरा दर खुला है इधर ही चले आना ।।
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तुमने नफरत की सड़क तामीर की
हमने प्यार के पुल उसपे बना दिए ।

मंगलवार, 29 मार्च 2011

राजभाषा के विकास में उच्‍चाधिकारियों की भूमिका

पिछले 6 दशकों से हिंदी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्‍ठापित करने का प्रयास जारी है। भारत सरकार की राजभाषा नीति के अनुरूप भारत सरकार का प्रत्‍येक मंत्रालय/विभाग/बैंक इत्‍यादि राजभाषा के संवर्द्धन और प्रचार-प्रसार के लिए निरंतर कार्य कर रहा है। प्रारंभिक वर्षों से ही हिंदी को राजभाषा के रूप स्‍थापित करने में कठिनाईयां आई। राजनीतिक शिकार होने के कारण हिंदी व्‍यवहारिकता के स्‍तर राजभाषा का स्‍थान ग्रहण नहीं कर पाई। राजभाषा के विकास हेतु अधिनियम, नियम, संकल्‍प और संसदीय राजभाषा समिति जैसी सर्वोच्‍च संस्‍थाओं का समर्थन हासिल है और साथ ही बहुसंख्‍यकों की भाषा और क्षेत्रीय भाषाओं की सखी होने के परिणामस्‍वरूप हिंदी जनभाषा के रूप में भी अग्रणी है। परंतु यह अत्‍यंत कष्‍टप्रद है कि इतना कुछ समर्थन होने के बावजूद हिंदी राजभाषा के रूप में प्रतिष्‍ठापित नहीं हो पा रही है। इसका साफ कारण सरकारी अनदेखी ही है। चूंकि सरकार अपनी भाषा नीति के कार्यान्‍वयन के प्रति गंभीर नहीं है। सरकारी आदेशों का खुले आम उल्‍लंघन यदि कहीं देखना हो तो वो राजभाषा के सरकारी आदेश ही है।

राजनीति से परे यदि राजभाषा को यदि किसी का सहारा अब बाकी है तो वह देश के उच्‍च पदों पर आसीन लोगों का ही है। हालांकि बड़े अधिकारी हिंदी में ज्‍यादा लिखना पसंद नहीं करते लेकिन सच तो यही है कि उच्‍चाधिकारी ही राजभाषा का सही कार्यान्‍वयन कर सकते हैं। इस प्रकार राजभाषा कार्यान्‍वयन में सबसे प्रमुख महत्‍ता विभिन्‍न कार्यालयों के उच्‍चाधिकारियों की है। अक्‍सर हम देख सकते हैं कि जो उच्‍चाधिकारी अपने कार्यालय में प्रशासनिक पकड़ मजबूत रखते हैं उनके आदेशों का कोई उल्‍लंघन नहीं करता फिर वह आदेश राजभाषा कार्यान्‍वयन का ही क्‍यों न हो।

राजभाषा कार्यान्‍वयन समिति की बैठकों में अध्‍यक्षता विभागाध्‍यक्ष द्वारा ही की जाती है और यदि अध्‍यक्ष सभी विभाग प्रमुखों से राजभाषा की समीक्षा पूरी गंभीरता से करता है तो इसका साफ असर निचले अधिकारियों में देखा जा सकता है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं कि कुशल उच्‍चाधिकारी के रहते विभागों में राजभाषा कार्यान्‍वयन को बल मिला है। लेकिन दिक्‍कत यह है कि ऐसे उच्‍चाधिकारी बहुत कम संख्‍या में ही हैं। हम अक्‍सर यह देखते हैं कि उच्‍चाधिकारी किसी भी कार्यालय में गुणवत्‍ता उत्‍पादकता को बढ़ाने हेतु उत्‍तरदायी होते हैं और कुशल उच्‍चाधिकारी के सामने सभी अन्‍य अधिकारीगण हर कार्य को सही समय पर ही करने के लिए कार्य करते हैं वहीं राजभाषा के प्रति भी यदि उच्‍चाधिकारी राजभाषा विभागप्रमुख को जवाबदेह बनाते हैं वहां राजभाषा कार्यान्‍वयन अधिक सही ढंग से संभव हो पाता है। राजभाषा कार्यान्‍वयन में विभाग के उच्‍चाधिकारी की भूमिका सबसे महत्‍वपूर्ण रहती है। एक अच्‍छे और राजभाषा प्रेमी उच्‍चाधिकारी के छांव में राजभाषा अधिकारी भी कई गुणा अपने कार्यों के निष्‍पादन को बेहतर बनाता है।

अत: राजभाषा कार्यान्‍वयन में राजभाषा अधिकारी की भूमिका तभी आरंभ होती है जब उच्‍चाधिकारी उसे जवाबदेह बनाते हैं और उसे राजभाषा कार्यान्‍वयन के प्रति सचेत करते हैं। हालंकि वर्तमान में ऐसी स्‍थिति बहुत कम कार्यालयों में है परंतु उम्‍मीद से दुनिया कायम है आशा है कि उच्‍चाधिकारी भी राजभाषा कार्यान्‍वयन के प्रति अधिक सचेत होंगें।

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

केंद्रीय सचिवालय हिंदी परिषद की 50वीं वर्षगांठ

केंद्रीय सचिवालय हिन्दी परिषद की स्थापना 3 मई, 1960 को नई दिल्ली में हुई थी। इसके संस्थापक दूर-द्रष्टा स्व. श्री हरि बाबू कंसल थे। हाल ही में इस परिषद ने 50वीं वर्षगांठ आयोजित की। इस अवसर पर श्री महेशचंद्र गुप्त जी ने राजभाषा हिंदी पर अपना जो बीज व्‍याख्‍यान दिया, वो दृष्‍टवय है। उन्होंने अपने व्‍याख्‍यान में जो बातें रखी वो हिंदी की राजभाषा के रूप में स्थिति की सही तस्वीर थी। उनके व्‍याख्‍यान में एक महत्वपूर्ण बात निम्न थी:

राष्ट्र्भाषा: इस प्रसंग में राष्‍ट्रभाषा की चर्चा करना भी समयोचित/प्रसंगानूकूल होगा। गुजरात राज्य के उच्चे न्यायलय के एक न्यायमूर्ति ने उल्लेख किया कि हिंदी को किसी प्रलेख में राष्ट्रभाषा घोषित नहीं किया गया किंतु यह ध्यान दने योग्य है कि वर्तमान संविधान के पूर्व भी भारत था और भाषा भी थी। देश में अनेक महापुरूष थे और विभूतियां थी जिन्होंने विगत दो शताब्दिंयों से हिंदी का राष्‍ट्रभाषा घोषित किया जिसका अनके पुस्तकों में लिखित उल्ले‍ख है। जिन्हें हम राष्ट्रपिता कहते हैं उनहोंने भी यत्र-तत्र-सर्वत्र हिंदी का राष्ट्रभाषा की संज्ञा दी। कुछ विद्वानों ने प्रश्न किया कि यदि स्वाधीनता के पश्चात हिंदी का राष्ट्रभाषा की संज्ञा देने की कोई अधिसूचना अथवा सांविधिक आदेश नहीं है तो राष्‍ट्रपिता का राष्‍ट्रपिता घोषित करने याराष्‍ट्रपिता की संज्ञा देने की क्या कोई अधिसूचना/सांविधिक आदेश है। यदि नहीं तो वे देश की मुद्रा यानि नोटों पर कैसे विराजमान है। अत: हम मानते हैं कि हिंदी राष्ट्रभाषा थी, है और रहेगी, इसी आधार पर ही तो यह सर्वसम्मसति से संविधान में संघ की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठिषत हुई। यह हिंदी पर कोई कृपा नहीं है और न ही कोई उपकार है।


यह शब्द उन तमाम अवरोधों पर विराम लगाते हैं तो तथाकथित कई पार्टियां अपनी राजनीति चमकाने के लिए करती हैं। आगे ,उन्होंने देश में राजभाषा कार्यान्वयन का कार्य देख रही सर्वोच्च संस्था राजभाषा विभाग और भारत सरकार के प्रत्येक मंत्रालय में पिछले कई दशकों से हिंदी की हो रही खुलेआम दुर्गति को भी सामने रखा।

इसमें कोई दोराय नहीं देश में स्‍वतंत्रता के बाद हिंदी की इतनी अनदेखी की गई है मानो यह हमारी भाषा न होकर अंग्रेजों की भाषा रही हो। देश के प्रधानमंत्री अंग्रेजी में ही बात करते हैं। गृह मंत्री तो हिंदी बोल भी अच्छी तरह से नहीं पाते जिस देश के दो उच्च् पदाधिकारी हिंदी की इस प्रकार अनदेखी करते हों वहां हिंदी के प्रति क्या सम्मान आएगा। देश के उद्योगपति हिंदी में बात करना अपनी तौहीन समझते हैं और मंत्रालयों में बैठे उच्चा्धिकारी तो अंग्रेजी की गुलामी करके इतरा रहे हैं। हमे शुक्र करना चाहिए कि ये लोग स्व्तंत्रता से पूर्व पैदा नहीं हुए नहीं तो देशद्रोहियों में शुमार होते।

देश के प्रत्येक सरकारी महकमों में हिंदी के आंकडों की पूरी बेशर्मी से धज्जियां उडाई जाती है। सच में देश की संसद मौन है। देश की संसद ही जब देश की भाषा की राजनीति करेगी तो वह दिन दूर नहीं जब देश का संविधान गले में फांसी लगाए किसी पेड पर लटकती लाश की तरह होगा और हमारे देश में ही कई देश बन बनेंगे।

पानी सर के ऊपर से निकल गया है। अभी समय है हमें हिंदी के प्रति गंभीरता लानी होगी अन्यथा यह देश कभी मानसिक रूप से स्वंतत्र नहीं हो पाएगा और अंग्रेजी गुलामों को पैदा करेगा।

जय हिंद जय हिंदी