पिछले 6 दशकों से हिंदी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित करने का प्रयास जारी है। भारत सरकार की राजभाषा नीति के अनुरूप भारत सरकार का प्रत्येक मंत्रालय/विभाग/बैंक इत्यादि राजभाषा के संवर्द्धन और प्रचार-प्रसार के लिए निरंतर कार्य कर रहा है। प्रारंभिक वर्षों से ही हिंदी को राजभाषा के रूप स्थापित करने में कठिनाईयां आई। राजनीतिक शिकार होने के कारण हिंदी व्यवहारिकता के स्तर राजभाषा का स्थान ग्रहण नहीं कर पाई। राजभाषा के विकास हेतु अधिनियम, नियम, संकल्प और संसदीय राजभाषा समिति जैसी सर्वोच्च संस्थाओं का समर्थन हासिल है और साथ ही बहुसंख्यकों की भाषा और क्षेत्रीय भाषाओं की सखी होने के परिणामस्वरूप हिंदी जनभाषा के रूप में भी अग्रणी है। परंतु यह अत्यंत कष्टप्रद है कि इतना कुछ समर्थन होने के बावजूद हिंदी राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित नहीं हो पा रही है। इसका साफ कारण सरकारी अनदेखी ही है। चूंकि सरकार अपनी भाषा नीति के कार्यान्वयन के प्रति गंभीर नहीं है। सरकारी आदेशों का खुले आम उल्लंघन यदि कहीं देखना हो तो वो राजभाषा के सरकारी आदेश ही है।
राजनीति से परे यदि राजभाषा को यदि किसी का सहारा अब बाकी है तो वह देश के उच्च पदों पर आसीन लोगों का ही है। हालांकि बड़े अधिकारी हिंदी में ज्यादा लिखना पसंद नहीं करते लेकिन सच तो यही है कि उच्चाधिकारी ही राजभाषा का सही कार्यान्वयन कर सकते हैं। इस प्रकार राजभाषा कार्यान्वयन में सबसे प्रमुख महत्ता विभिन्न कार्यालयों के उच्चाधिकारियों की है। अक्सर हम देख सकते हैं कि जो उच्चाधिकारी अपने कार्यालय में प्रशासनिक पकड़ मजबूत रखते हैं उनके आदेशों का कोई उल्लंघन नहीं करता फिर वह आदेश राजभाषा कार्यान्वयन का ही क्यों न हो।
राजभाषा कार्यान्वयन समिति की बैठकों में अध्यक्षता विभागाध्यक्ष द्वारा ही की जाती है और यदि अध्यक्ष सभी विभाग प्रमुखों से राजभाषा की समीक्षा पूरी गंभीरता से करता है तो इसका साफ असर निचले अधिकारियों में देखा जा सकता है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं कि कुशल उच्चाधिकारी के रहते विभागों में राजभाषा कार्यान्वयन को बल मिला है। लेकिन दिक्कत यह है कि ऐसे उच्चाधिकारी बहुत कम संख्या में ही हैं। हम अक्सर यह देखते हैं कि उच्चाधिकारी किसी भी कार्यालय में गुणवत्ता उत्पादकता को बढ़ाने हेतु उत्तरदायी होते हैं और कुशल उच्चाधिकारी के सामने सभी अन्य अधिकारीगण हर कार्य को सही समय पर ही करने के लिए कार्य करते हैं वहीं राजभाषा के प्रति भी यदि उच्चाधिकारी राजभाषा विभागप्रमुख को जवाबदेह बनाते हैं वहां राजभाषा कार्यान्वयन अधिक सही ढंग से संभव हो पाता है। राजभाषा कार्यान्वयन में विभाग के उच्चाधिकारी की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रहती है। एक अच्छे और राजभाषा प्रेमी उच्चाधिकारी के छांव में राजभाषा अधिकारी भी कई गुणा अपने कार्यों के निष्पादन को बेहतर बनाता है।
अत: राजभाषा कार्यान्वयन में राजभाषा अधिकारी की भूमिका तभी आरंभ होती है जब उच्चाधिकारी उसे जवाबदेह बनाते हैं और उसे राजभाषा कार्यान्वयन के प्रति सचेत करते हैं। हालंकि वर्तमान में ऐसी स्थिति बहुत कम कार्यालयों में है परंतु उम्मीद से दुनिया कायम है आशा है कि उच्चाधिकारी भी राजभाषा कार्यान्वयन के प्रति अधिक सचेत होंगें।