केंद्रीय सचिवालय हिन्दी परिषद की स्थापना 3 मई, 1960 को नई दिल्ली में हुई थी। इसके संस्थापक दूर-द्रष्टा स्व. श्री हरि बाबू कंसल थे। हाल ही में इस परिषद ने 50वीं वर्षगांठ आयोजित की। इस अवसर पर श्री महेशचंद्र गुप्त जी ने राजभाषा हिंदी पर अपना जो बीज व्याख्यान दिया, वो दृष्टवय है। उन्होंने अपने व्याख्यान में जो बातें रखी वो हिंदी की राजभाषा के रूप में स्थिति की सही तस्वीर थी। उनके व्याख्यान में एक महत्वपूर्ण बात निम्न थी:
राष्ट्र्भाषा: इस प्रसंग में राष्ट्रभाषा की चर्चा करना भी समयोचित/प्रसंगानूकूल होगा। गुजरात राज्य के उच्चे न्यायलय के एक न्यायमूर्ति ने उल्लेख किया कि हिंदी को किसी प्रलेख में राष्ट्रभाषा घोषित नहीं किया गया किंतु यह ध्यान दने योग्य है कि वर्तमान संविधान के पूर्व भी भारत था और भाषा भी थी। देश में अनेक महापुरूष थे और विभूतियां थी जिन्होंने विगत दो शताब्दिंयों से हिंदी का राष्ट्रभाषा घोषित किया जिसका अनके पुस्तकों में लिखित उल्लेख है। जिन्हें हम राष्ट्रपिता कहते हैं उनहोंने भी यत्र-तत्र-सर्वत्र हिंदी का राष्ट्रभाषा की संज्ञा दी। कुछ विद्वानों ने प्रश्न किया कि यदि स्वाधीनता के पश्चात हिंदी का राष्ट्रभाषा की संज्ञा देने की कोई अधिसूचना अथवा सांविधिक आदेश नहीं है तो राष्ट्रपिता का राष्ट्रपिता घोषित करने याराष्ट्रपिता की संज्ञा देने की क्या कोई अधिसूचना/सांविधिक आदेश है। यदि नहीं तो वे देश की मुद्रा यानि नोटों पर कैसे विराजमान है। अत: हम मानते हैं कि हिंदी राष्ट्रभाषा थी, है और रहेगी, इसी आधार पर ही तो यह सर्वसम्मसति से संविधान में संघ की राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठिषत हुई। यह हिंदी पर कोई कृपा नहीं है और न ही कोई उपकार है।
यह शब्द उन तमाम अवरोधों पर विराम लगाते हैं तो तथाकथित कई पार्टियां अपनी राजनीति चमकाने के लिए करती हैं। आगे ,उन्होंने देश में राजभाषा कार्यान्वयन का कार्य देख रही सर्वोच्च संस्था राजभाषा विभाग और भारत सरकार के प्रत्येक मंत्रालय में पिछले कई दशकों से हिंदी की हो रही खुलेआम दुर्गति को भी सामने रखा।
इसमें कोई दोराय नहीं देश में स्वतंत्रता के बाद हिंदी की इतनी अनदेखी की गई है मानो यह हमारी भाषा न होकर अंग्रेजों की भाषा रही हो। देश के प्रधानमंत्री अंग्रेजी में ही बात करते हैं। गृह मंत्री तो हिंदी बोल भी अच्छी तरह से नहीं पाते जिस देश के दो उच्च् पदाधिकारी हिंदी की इस प्रकार अनदेखी करते हों वहां हिंदी के प्रति क्या सम्मान आएगा। देश के उद्योगपति हिंदी में बात करना अपनी तौहीन समझते हैं और मंत्रालयों में बैठे उच्चा्धिकारी तो अंग्रेजी की गुलामी करके इतरा रहे हैं। हमे शुक्र करना चाहिए कि ये लोग स्व्तंत्रता से पूर्व पैदा नहीं हुए नहीं तो देशद्रोहियों में शुमार होते।
देश के प्रत्येक सरकारी महकमों में हिंदी के आंकडों की पूरी बेशर्मी से धज्जियां उडाई जाती है। सच में देश की संसद मौन है। देश की संसद ही जब देश की भाषा की राजनीति करेगी तो वह दिन दूर नहीं जब देश का संविधान गले में फांसी लगाए किसी पेड पर लटकती लाश की तरह होगा और हमारे देश में ही कई देश बन बनेंगे।
पानी सर के ऊपर से निकल गया है। अभी समय है हमें हिंदी के प्रति गंभीरता लानी होगी अन्यथा यह देश कभी मानसिक रूप से स्वंतत्र नहीं हो पाएगा और अंग्रेजी गुलामों को पैदा करेगा।
जय हिंद जय हिंदी
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