तुम भूल भी जाओ तो क्या खुद
आगे बढूंगी मैं
तुम्हारे उदासीन संदेशों
की मोहताज नहीं हूं मैं
14 सितंबर को हिंदी दिवस है
और फिर शुरू हो जाएगा झूठी बातों का सिलसिला और परंपरा के अनुसार राजभाषा से जुड़े
अधिकारी जुट जाएंगे हिंदी दिवस के कार्यक्रमों के आयोजनों में। अपने-अपने प्रमुखों
का संदेश जारी होगा और फिर हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए बड़े-बड़े कसीदे लिखे जाएंगें।
वैसे तो कई जगह पुराने संदेशों को ही कॉपी पेस्ट करके कुछ नए शब्दों को उसमें
डाल दिया जाएगा और नए रंग भरने का प्रयास किया जाएगा। शायद जितना झूठ इन संदेशों
मे लिखा जाता है उतना कहीं और दिखने को नहीं मिलता। हिंदी हमारी राष्ट्रीय भाषा
है, हिंदी हमारी अस्मिता की पहचान है, हिंदी राष्ट्र को सूत्र में पिरो सकती है,
स्वतंत्रता सैनानियों और राष्ट्रीय नेताओं ने हिंदी को अपनी पहचान बताया है जैसे
वाक्यों से संदेशों में जान डालने का प्रयास किया जाता है। लेकिन अब आम जनता
खासकर सरकारी कर्मचारी इन बातों से प्रोत्साहित नहीं होते बल्कि इसे मजाक समझ
लेते हैं। कुछ बड़े साहब के हस्ताक्षर हैं इसलिए कुछ बोलते नहीं। ऐसे वाक्ये भी कम नहीं
कि इन संदेशों को कई बार विभाग प्रमुख अंग्रेजी में ही शुरू कर देते हैं तब हिंदी दिवस
के मजाक बन कर रह जाता है। यह सारी बातें मैं इसलिए कह रहा हूं कि इस बार माननीय
गृहमंत्री का हिंदी दिवस संदेश उदासीनता की पराकाष्ठा है। हिंदी को राजभाषा के रूप
में विकसित करने के लिए क्या किया जाना है, ऐसा एक भी सुझाव देखने को नहीं मिलता
है। वास्तव में इन सदेशों को परंपरा निभाने से ज्यादा देखा भी तो नहीं जाता। यदि
वास्तव में देश के माननीय गृहमंत्री हिंदी को बढ़ावा देना चाहते तो हिंदी की प्रगति
को रेखांकित कर सकते थे। हिंदी को हमेशा प्रेरणा और प्रोत्साहन से आगे ले जाना
निश्चित रूप से संवैधानिक दायित्व है लेकिन उसी संविधान द्वारा बनाए गए नियमों
की अनदेखी करना उदासीनता की निशानी है। संदेश यदि कार्यालय प्रधान के अपने दिल की
बात हो तो लोग उसे आवश्यक रूप से गंभीरतापूर्वक देखते हैं लेकिन यदि संदेश
राजभाषा विभाग ने दायित्व अनुपालन के दृष्टिकोण से लिखा हो तो इसका कोई औचित्य
नहीं है। हम स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के संदेशों पर दृष्टि डालें तो
उसके मुकाबले में यह कहीं नहीं ठहरता। हिंदी को राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित न
कर पाने की विफलता हर संदेश में दिखती है और अब इन संदेशों को कोई गंभीरतापूर्वक नहीं
लेता। यह परंपरा भी अब समाप्त होनी चाहिए क्योंकि हिंदी को आगे बढ़ने के लिए इन
सदेशों की आवश्यकता नहीं है वह स्वयं में सक्षम है और इसका प्रमाण देना मैं उचित
नहीं समझता।
ekdum sateek likha hai apne....
जवाब देंहटाएंekdum sateek likha hai apne....
जवाब देंहटाएंआपने राजभाषा की वास्तविक स्थिति दर्शायी है ।
जवाब देंहटाएंआपने राजभाषा की वास्तविक स्थिति दर्शायी है ।
जवाब देंहटाएं