राजभाषा के रूप में हिंदी की विकास यात्रा निरंतर जारी है। वर्ष दर वर्ष राजभाषा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयास तेज करने की बात भी बदस्तूर जारी है। आज सबसे महत्वपूर्ण बात जो सामने निकल कर आ रही है वह यह है कि पुराने युग की समाप्ति हो रही है और देश तकनीकी क्रांति देख रहा है। यह तकनीकी क्रांति आज से 30 वर्ष पूर्व राजभाषा से जुड़े व्यक्तियों के लिए एकदम नई है और एक चुनौती के रूप में खड़ी हो गई है। कुछ राजभाषा से जुड़े अधिकारी अपने आप को नए वातावरण के अनुकूल ढालने का प्रयास कर रहे हैं पर फिर भी अधिकतर तकनीकी दृष्टि से सक्षम नहीं है और इससे भी बढ़ी बात कि आगामी 2 से 3 वर्षों में राजभाषा की डोर नए युवाओं के हाथ में पूरी तरह से आने वाली है। यह भी दृष्टव्य है कि आज राजभाषा को लेकर फिर वहीं चुनौतियां सामने हैं जो 30 वर्ष पूर्व थी। तकनीकी क्रांति ने राजभाषा के लिए भी चुनौतियां खड़ी कर दी हैं और अब नए राजभाषा अधिकारियों को फिर कहीं न कहीं नई शुरूआत करने की आवश्यकता है। वर्तमान में सबसे बड़ा प्रश्न जो उभरकर सामने आ रहा है वह यह है कि क्या नए युवा राजभाषा को लेकर गंभीर हैं या केवल उन्होंने राजभाषा को रोजगार या आगे बढ़ने का माध्यम समझकर अपनाया है। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि नए राजभाषा अधिकारियों की मन: स्थिति ही राजभाषा का अगला पड़ाव तय करने वाली है। मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हूं कि यदि नए राजभाषा अधिकारी भी केवल अड़चनों और सरकारी उदासीनता का शिकार हुए तो शीघ्र ही राजभाषा के रूप में हिंदी अपने पतन को देख सकती है। मैं हमेशा से मानता हूं कि हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में आगे बढ़ने से विश्व की कोई ताकत नहीं रोक सकती और उसके लिए राजभाषा अधिकारियों की आवश्यकता भी नहीं है परंतु यदि हम राजभाषा के रूप में विचार करें तो सबसे कठिन चुनौतियां हमारे सामने हैं।
सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि आखिर हिंदी को राजभाषा के रूप में आगे कैसे बढ़ाया जाए? भारत में राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, भारत सरकार को छोड़कर कोई भी सीधे राजभाषा के प्रचार-प्रसार के लिए काम नहीं कर रहा है अर्थात संस्थाएं अपने व्यवसाय के अनुसार ही अपनी नीतियां तय करती है और ऐसे में सबसे महत्वपूर्ण चुनौती है वहां राजभाषा की उपयोगिता को साबित करना। इसलिए हम चाहे किसी भी संस्था से जुड़े हो हमें वहां के कारोबार और कार्यकलापों के अनुरूप राजभाषा नीति का समन्वय बिठाने का प्रयास करना होगा। हिंदी कार्यशालाओं, संगोष्ठियों, सेमिनारों, सम्मेलनों, कार्यक्रमों को हमें संस्था विशेष की आवश्यकताओं के अनुरूप ढालते हुए उसमें राजभाषा के महत्व को उजागर करना होगा। हमें हिंदी के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं को भी बराबर महत्व देना होगा। इसमें कोई दोराय नहीं कि जो मैं लिख रहा हूं उसे संस्था विशेष की परिस्थितियों के अनुसार करना कठिन होता है परंतु असंभव नहीं है। इसके साथ ही राजभाषा अधिकारियों के लिए सबसे प्रमुख चुनौती है लोगों के हृदयों में हिंदी के प्रति उदासीनता और नकरात्मक सोच को हटाना। यह सत्य है जब आपके सामने हर समय अंग्रेजी के पत्र और सूचनाएं आती हैं तो यह उदासीनता पुख्ता होती जाती है परंतु यह कोई बड़ी समस्या नहीं यदि द्विभाषीकरण को सही रूप में अपनाया जाए तो इस समस्या को आसानी से दूर किया जा सकता है। हमारे वातावरण में अंग्रेजी नजर आती है तो सभी को लगता है अंग्रेजी बढ़ रही है तो इस वातावरण को ही बदल डालिए। हमें कार्यालयी वातावरण में हिंदी की हवाएं बहानी होगी तो लोग स्वयं ही इसकी खुश्बुओं में सराबोर हो जाएंगे।
दूसरे हमेशा यही कहिए हिंदी बढ़ रही है हम जितना कहेंगे यह बात हमारे मस्तिष्क पर उतनी ही गहरी होती जाएगी। हमेशा अपने संस्था के लोगों से मिलने पर कहें हिंदी आगे बढ़ रही है चाहे आपके मन में नकारात्मकताआ आ रही हो पर यह दूसरों के सामने न आने दें। जब हम लगातार लोगों के सामने यह कहेंगे और राजभाषा के लिए अपने काम भी जारी रखेगं तो निश्चय ही राजभाषा के प्रति सकारात्मक माहौल तैयार होगा। यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं कि अधिकतर राजभाषा से जुड़े लोगों की अपनी सोच में भी हिंदी की प्रति उदासीनता दिखती है और ऐसी स्थिति में दूसरे से कोई भी अपेक्षा करना आधारहीन है।
तीसरे वर्तमान में हर संस्था में राजभाषा के नए बीज बोए जा रहे हैं अर्थात नए राजभाषा अधिकारियों की भर्ती की जा रही है। इनमें से कुछ अधिकारी बिल्कुल नए और कुछ थोड़ा बहुत अनुभवी हैं। संस्था के दूसरी अनुभवी अधिकारियों से यह अपेक्षा की जा सकती है कि वह इन नए बीजों को अच्छी तरह से सींचे अर्थात उन्हें राजभाषा के प्रत्येक पक्ष की जानकारी दें क्योंकि यदि उन्हें सही या गलत जानकारी मिलती है तो वैसी ही जानकारी आगे बांटेंगे और सफल नहीं हो पाएंगे। प्रशिक्षण कार्यक्रमों में इस बात का ध्यान दिया जाना चाहिए कि नए लोगों को राजभाषा नीति की स्टीक जानकारी दी जाए और प्रयास किए जाने चाहिए अपनी संस्था के अनुभवी या बाहरी संस्थाओं के सफल राजभाषा से जुड़े लोगों को बुलाया जाए। इन बीजों को मिट्टी के अनुरूप तैयार किया जाए और समय-समय पर सिंचित किया जाए तो आगे चलकर एक हरेभरे पेड़ के रूप में उभरेंगे।
वैसे तो राजभाषा के समुद्र में जाना और बाहर निकलना आसान नहीं, पर चलिए अगले लेख तक यहीं विराम लगाता हूं। जय हिंदी, जय हिंद, जय भारत
सत्य को खंगालने का एक पुरजोर प्रयास। ऐसी कोशिशों से ही राजभाषा अपनी क्षमताओं को आलोकित कर सकेगी।
जवाब देंहटाएंलेख सकारात्मकता से ओत-प्रोत है। यह बात सही है कि राजभाषा का आगाज तो पुराने साथियों से हुआ लेकिन अंजाम नई युवा पीढ़ी के हाथ में है। तकनीकी के क्षेत्र में नई युवा पीढ़ी को सींचने की आवश्यकता है। ऐसे ही सकारात्मक लेख नई पीढी के लिए एक कीर्तिमान स्थापित होंगे।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद,